*कर्म धर्म और मर्म की अत्यंत पवित्र और सम्पूर्ण संसार की सच्ची मार्गदर्शक है श्रीमद्भागवत गीता--घनश्याम सिंह त्रिभाषी साहित्यकार,आध्यात्म चिंतक*
👍 ■ *महानतम चेतना द्वारा प्रदत्त भारत की महान गौरवशाली उपलब्धि का महान उपहार है श्रीमद्भागवत गीता*
👍 ■ *ईश्वरावतार श्री कृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता के माध्यम से सम्पूर्ण विश्व वासियों को न्याय,समता और ममता और संसार में अवतारों के प्राकट्य की शिक्षा दी*
👍 ■ *संसार के प्रत्येक व्यक्ति को श्रीमद्भागवत गीता का सच्चे मन से अध्ययन व मनन करना चाहिए*
" निसंदेह अत्यंत परम पावन पुस्तक श्रीमद्भागवत गीता केवल भारत ही नहीं वरन समस्त संसार वासी मनुष्यों के लिए कर्म,धर्म और मर्म की सच्ची मार्गदर्शक है, महानतम चेतना की प्रेरणा से प्रकटित ईश्वरावतार श्रीकृष्ण ने अपनी दिव्य वाणी द्वारा जो कर्म,धर्म और मर्म की शिक्षा दी वह जग के जन-जन द्वारा अनुकरणीय है,न्याय नीति और सदमार्गदर्शन का ऐसा दूसरा उदाहरण कहीं देखने को नहीं मिलता है,श्रीमद्भागवत गीता में समस्त वेदों, पुराणों,पवित्र पुस्तकों का सार समाया हुआ है,इसका एक-एक शब्द सारगर्भित व सदमार्गदर्शक है श्रीमद्भागवत गीता के रचयिता वेदव्यास ने स्वयं इसका महत्व बताते हुए कहा है
" *गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यै: शास्त्र विस्तरै:*
*या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्मद्वविनि: सृता ।।*
"अर्थात गीता सुगीता करने योग्य है क्यों कि यह भगवान "विष्णु" के मुखारबिंद से निकली है,अन्य शास्त्र का कोई प्रयोजन नहीं है"*
श्रीमद्भागवत गीता के अध्याय 18 के श्लोक 68 में परम पावन पुस्तक "गीता" के महात्म्य का वर्णन करते हुए स्वयं ईश्वरावतार श्रीकृष्ण ने कहा है -
" *य इमम परम गुह्म मद्भक्तेष्वभिधास्यति।*
*भक्तिम मयि पराम कृत्वा मामेवष्यत्यसंशयः* ।।
अर्थात "जो पुरुष मुझमें परम् प्रेम करके इस परम रहस्ययुक्त गीता शास्त्र को मेरे भक्तों में कहेगा,वह मुझको ही प्राप्त होगा,इसमें कोई संदेह नहीं है।*
इसी तरह ईश्वरावतार श्रीकृष्ण ने
श्रीमद्भागवत गीता के अध्याय 18 के ही श्लोक 70 में परम पावन पुस्तक के महत्व का प्रतिपादन करते हुए कहा है
*"अध्येष्यते च य इमं धर्मय संवादमावयो:*।
*ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्ट: स्यामिति मे मति:*।।
अर्थात "जो पुरुष इस धर्म मय हम दोनों के संवादरूप गीता शास्त्र को पढ़ेगा,उसके द्वारा भी मैं ज्ञान यज्ञ से पूजित होऊंगा-ऐसा मेरा मत है"।
आगे अन्य एक प्रसंग में ने श्रीमद् भागवत गीता के अध्याय 18 के ही 71 में इस लोक में गीता शास्त्र को श्रद्धा युक्त और दोष दृष्टि से रहित होकर अध्ययन करने की प्रेरणा दी है जिसमें उन्होंने कहां है-
" *श्रद्धावाननसूयश्च श्रुणुयादपि यो नर:*
*सोअपि मुक्त: ..........कर्मणाम।।*
अर्थात "जो मनुष्य श्रद्धायुक्त और दोष दृष्टि रहित होकर इस गीता शास्त्र का श्रवण भी करेगा,वह भी पापों से मुक्त होकर उत्तम कर्म करने वालों के श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होगा।।
महाभारत वास्तव में न्याय अन्याय के मध्य युद्ध था जिसमें एक और अन्याय के प्रतीक कौरव तथा दूसरी ओर न्याय के पुजारी पांडव सेनानी थे, सर्व विदित है जब जब कौरवों ने पांडवों को राज पाट में हिस्सा देने से साफ मना कर दिया तब धर्म युद्ध की परिस्थितियां उत्पन्न हुई जिसे महाभारत का नाम दिया गया युद्ध के पूर्व जब कुरुक्षेत्र में महाभारत युद्ध के लिए कौरवों और पांडवों की सेनाएं आमने सामने आई तो महाबली अर्जुन को मोहने घेर लिया और अर्जुन ने जब युद्ध के मोर्चे पर अपने परिजनों गुरुजनों को देखा तो वे निढाल हो गए तब अर्जुन बोले-
"*दृष्टिममं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुन समुपस्थितम।*
*सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।*
*वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते।* 1/28
अर्थात अर्जुन बोले हे कृष्ण! युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इस स्वजन समुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं और मुख् सूखा जा रहा है तथा मेरे शरीर में कंप एवं रोमांच हो रहा है।
और कहा
*गाण्डीवं संस्रस्ते हस्तात्व क्वचैव परिदहते।*
*न च शक्रोम्य व्यस्थातुं भ्रमतीव च में मन:।*
"हाथ से गांडीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है,तथा मेरा मन भ्रमित सा हो रहा है,इसलिए मैं खड़ा रहने में भी समर्थ नहीं हूँ।।
इस तरह जब अर्जुन को माया मोह ने घेर लिया और युद्ध ना करने का निश्चय करके बैठ गए इस पर ईश्वर अवतार श्री कृष्ण ने अर्जुन को धर्म युद्ध के लिए प्रेरित करते हुए कहा-
*"क्लेवयम मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।*
*क्षुद्रमं हृदय दौर्बलयं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप।।*
अर्थात हे अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो,तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती,हे परंतप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा।।
इस तरह ईश्वरावतार ने तमाम तरह से अर्जुन का मोह नाश कर धर्म युद्ध के लिए प्रेरित किया, जिसके परिणाम स्वरुप भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन की समस्त शंका का निवारण किया और उन्हें सच्चा ज्ञान दिया जिसे महाभारत युद्ध आयोजित हुआ जिसमें अन्यायियों का नाश हुआ और न्याय पक्ष की जीत हुई,
परम पावन पुस्तक श्रीमद्भागवत गीता सर्व धर्म समन्वय स्थापित करने व इस संसार के लोगों के मार्गदर्शन के लिए क्रमागत ईश्वरावतरण की भी महान प्रेरणा देती है, अगर इस बात पर दुनियां के लोग जरा भी गौर करें तो दुनियां में धर्म के नाम पर कभी खून- खराबा व झगड़े तण्टे न हों,
सर्वाधिक महत्वपूर्ण श्लोक अध्याय 4/7 में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
"*यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।*
*अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम।*
(हे भारत जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तब तब ही मैं अपने रूप को रचता हूं अर्थात साकार रुप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूं)
इसी तरह श्लोक 4/8 में ईश्वरावतार श्री कृष्ण कहते हैं-
"*परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम।*
*धर्मसंस्थापनार्थाय संभामि युगे युगे।।*
अर्थात "साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए, पापकर्म करने वालों का विनाश करने के लिए,धर्म की स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट होता हूँ।।
इस तरह से श्रीमद्भागवत गीता में सर्वोत्तम ज्ञान दर्शन का बोध मिलता है जिसका गूढ़ रहस्य,अर्थ है,जिसमें धर्म की स्थापना अर्थात मानवता के मार्गदर्शन के लिए युग-युग में ईश्वरावतार के प्रकटीकरण की बात कही गयी है, अगर इस बात पर मनन किया जाए तो हमें संसार के समस्त धर्म अपने लगने लगेंगे और सभी मनुष्य एक ही परम पिता की संतान दृष्टिगोचर होंगे,अभी ज्ञान के अभाव में कुछ लोग ये समझते हैं कि ये धर्म मेरा है वह धर्म उनका है, वह उनके भगवान हैं,ये मेरे भगवान हैं जबकि सच तो यह है कि संसार की समस्त मानव जाति की भलाई के लिए प्रत्येक काल अवधि में क्रमिक ढंग से ईश्वर अवतार आते हैं और देश काल परिस्थितियों के अनुसार सबको भौतिक/व्यवहारिक व आध्यात्मिक शिक्षा देते हैं,
अतः सबको निसंकोच होकर जाति धर्म से ऊपर उठकर श्रीमद्भागवत गीता का स्वाध्ययन करना चाहिए,निःसंदेह श्रीमद्भागवत गीता समस्त,समाज,समुदाय,संसार की सदमार्गदर्शक है,मानवता का अमृत है।।
--- *घनश्याम सिंह त्रिभाषी साहित्यकार*
*आध्यात्म चिंतक*
फ़ोटो-
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
If You have any doubts, Please let me know